जब कुछ साल पहले मसूरी जाने का मौका मिला था... तो सबसे बड़ी ख़ुशी इस बात की थी किमहान लेखक रस्किन बांड से मिलना हो जाएगा। उनकी कई कहानियां और जिंदगी के किस्से याद थे। रास्ते भर उन्हें ही दोहराता रहा! इसमें इतना मगन हो गया कि यही भूल गया कि मसूरी में और कुछ भी देखने को है। मसूरी में देर रात पहुंचने का यह गम था कि रस्किन बांड से अभी मिलना नहीं हो पाएगा।
खैर जैसे तैसे सुबह हुई। दोपहर के करीब उनका पता चल गया कि वे लाल टिब्बा में रहते हैं, जो मसूरी कि सबसे ऊंची चोटी है। टैक्सी वाले ने भी आधी चढ़ाई के बाद ब्रेक लगा दिया कि बस अब और आगे नहीं जा सकता।
वैसे बस स्टैंड पर लोगों से रस्किन बांड का फोन नम्बर भी तलाशा था कि समय ले कर जाऊं... लेकिन वहां तो 197 को भी उनका सही नंबर पता नहीं था... क्योंकि उनके बताए नंबर पर लगाया तो पता चला ये फोन चलन में ही नहीं है। अब यही तरीका बचा था कि जैसे भी हो बस उन तक एक बार पहुँच भर जाएं ...फिर तो अपन हैं ही।
हां, तो लाल टिब्बा... ऊपर तक चढऩे में दादी, नानी सब याद आ गई। जिससे भी पूछो एक ही जवाब ‘वो रहा सामने चढ़ते चले जाओ!’ और चढ़ाई थी कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। साथ वाले और परेशान कि ये कहां आसमान में टांग दिया! रस्किन बांड के नजदीक पहुंचते-पहुंचते तो हालत ये हो गई थी कि एक घर के सामने पानी मांगना पड़ गया था। सांसें इतनी बेतरतीब हो चुकी थीं कि उन्हें सलीके से लाने में ही आधा घंटा लग गया।
जब लगा कि अब दिखाने और बात करने लायक हो गए हैं... तो उनके घर की घंटी बजा दी। दरवाजा खोलने वाले रस्किन बांड ही थे। उन्हें कई-कई बार किताबों और टीवी पर देखा था। दुआ सलाम के बाद बताया कि उनके लेखन के दीवाने हैं और ठेठ इंदौर से चले आ रहे हैं और यह भी कि मसूरी में अभी कुछ नहीं देखा है... सबसे पहले आप को ही देखने और मिलने चले आए हैं। वे खड़े सुनते रहे ‘कभी फोन करके आइएगा ...अभी तो मैं आराम कर रहा हूं। नमस्ते!’ कहते हुए उन्होंने मेरे मुंह पर ही दरवाजा भेड़ दिया। कहां तो चढ़ाई की थकान उतारने की तैयारी थी... और कहां फिर से नीचे उतरने की मेहनत। साथवाले भी ऐसे गुमसुम हुए कि दो दिन तक किसी ने उस हादसे का जिक्र भी नहीं किया। तभी तय कर लिया था कि अब मसूरी कभी नहीं जाऊंगा ...रस्किन बांड से मिलने तो कतई नहीं!
दरअसल मुगालते के साथ जाने का हौसला देने वाले हमारे हिंदी के लेखक रहे हैं! याद आ रहा है करीब तीस साल पहले गीतकार अनूप अशेष इंदौर आए थे और आते से ही बोले थे कि नईम साहब से मिलने देवास जाना है। तब तक मैं उनसे नहीं मिला था। सही कहूं तो देवास भी नहीं देखा था! अपने लेम्ब्रेटा पर बैठाकर अनूप को मैं देवास ले गया था! पता तो पता था मगर रास्ता नहीं मालूम था! एक बन्दे से पूछा तो वो साथ हो लिया कि आ जाइये मेरे पीछे... घर तक छोड़ देता हूं! और बन्दे ने ठीक घर के सामने जाकर कहा ‘ये रहा नईम साहब का घर... अब मैं चलता हंू!’ कहते हुए वो वहीं से पलट गया!
नईम साहब घर में ही थे ...निपट अकेले! मुझे तो यह भी पता नहीं था कि घर में कोई और भी रहता या रहते हैं! थोड़ी देर तक तो यूं ही बातें होती रही... फिर नईमजी उठे और चाय बनाने लगे। हमने कहा भी कि रस्ते भर चाय पीते हुए ही आ रहे हैं तो कहने लगे ‘मियाँ तुमने पी ली तो क्या हमने भी पी ली! हम तो पियेंगे’ कहते हुए चाय का पानी चढ़ा दिया!
चाय के बाद फिर इधर-उधर की, बातें होने लगी! मगर उनकी बैचेनी कुछ और ही बात कर रही थी!
‘अभी बजे हैं बारह... यानी कम से कम दो घंटे पहले तो निकले ही होगे इंदौर से... यानी खाना तो नहीं खाया होगा... तो चलो अब हम खाना पकाएंगे!’ हमने उन्हें बहुत रोकने की कोशिश की... मगर मान जाएं तो उन्हें नईम कहे कौन! अपने हाथ से.... जी हां वे रोटी बेलन चकले की मदद से नहीं बनाते थे, वो करारी रोटियां खिलाईं कि सत्या के गाने ‘गौरी सपने में मिलती है, में भुनी है करारी है’ सुनता हूं तो वो ही रोटियां याद आती हैं! हरे मटर की उतनी ही लाजवाब तरकारी ...और डांट के साथ इसरार ऐसा कि पेट भर जाए मन खाली होता जाए!
तो ऐसी छवि थी अपने दिमाग में तो लेखक की! कवि राजेश जोशी अपनी पत्नी के तबादले की वजह से उन दिनों इंदौर में थे! मिलने की बहुत इच्छा थी! जान-पहचानवालों से भी कहा कि भैया मिलने जाओ तो मुझे भी ले लेना! मेरा उनसे परिचय नहीं है! पर कोई खुदा का बन्दा तैयार नहीं हुआ! तब एक रविवार की सर्द सुबह मैं उनके घर पहुंच गया! यहीं इंदौर में जीपीओ के पास बैंक कालोनी में घर था उनका! गया तो फिर ऐसा गया कि सुबह से दोपहर हो गई! पोहा जलेबी चाय और ना जाने क्या-क्या और कितना खाया... कि कई दिनों तक किसी भी किस्म की भूख नहीं लगी! राजेश जोशी ने तो यह भी नहीं पूछा कि आप कौन हैं और करते क्या हैं, मगर बातें इस तरह करते रहे जैसे ना जाने कब से जानते रहे हो!
पिछले ही साल कवि चंद्रकांत देवताले से मिलने उज्जैन गए थे... तो यह रहस्य खुला था कि चाय बनाने के लिए सिर्फ दूध ,शकर या चायपत्ती दरकार नहीं होती है... उसमें आत्मा भी डालना होती है! वैसी आत्माशुदा चाय की तलब जब भी होती है, मैं उज्जैन भाग लेता हंू! देवास को अगर मैं नईमजी की वजह से जानता हूं तो उज्जैन में सिर्फ देवताले ही रहते हैं!
अब आप ही बताइये कि हिन्दीवालों ने जब मुझे इतना बिगाड़ रखा हो तो मैं कैसे भय खाता कि अंग्रेजी का कोई लेखक दूरदेस से आए अपने पाठक के मुंह पर यूं दरवाजा मार सकता है! हां, उसके बाद यह जरूर हुआ कि मैं अंग्रेजी के किसी भी नामी लेखक से मिलने कभी नहीं गया...शायद जाऊंगा भी नहीं!
(मैं यह नहीं मानता कि भाषा की वजह से लेखक ऐसे होते हैं..., यह तो उनकी अपनी खसलत होती है। यदि आपके साथ भी लेखकों की ऐसी आदतों से जुड़े किस्से हैं तो जरूर लिख भेजिए...!)
nice
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