Tuesday, September 21, 2010

लट्ठ को बांसुरी बनाने की मजबूरी

क्या भारतीय जनता पार्टी यह चाह रही है कि अयोध्या-मामले में फैसला मंदिर के हक में ही आए? क्या आस्थावादी दल के नेता धर्मस्थलों पर जाकर ‘मानता’ मान रहे हैं कि हमारे पक्ष में फैसला हो जाए? क्या भाजपा उस दिन उछलकर आसमान में थिगला लगा देगी, जब मंदिर के लिए फैसला आएगा? भाजपा को खुश होना रास आएगा या मुट्ठी कसते और दांत पीसते हुए नाराजी का सार्वजनिक-प्रदर्शन? भाजपा की यह मजबूरी है कि उसकी छवि लट्ठ लेकर चलने वाली है, मगर जनता उसे बांसुरी पकडऩे पर मजबूर कर देती है। शासन करने के लिए बांस नहीं, बांसुरी दरकार होती है, जबकि भाजपा को बांसुरी कम और बांस की ज्यादा दत है। इसीलिए उसकी मंशा यही है कि या तो फैसला मंदिर के खिलाफ जाए या फिर यह अनंतकाल तक यूं ही टलता रहे, जैसे कि साठ साल से टल रहा है।

मंदिर का मुद्दा, काठ की ऐसी हांडी है, जिसे एक बार ही चढ़ाया जा सकता है... और इस ‘लाइफ लाइन’ से भाजपा ने ‘दिल्ली-फतह’ कर ली थी! उसने दिल्ली पाने का तरीका तो इजाद कर लिया था, मगर वहां बने रहने के फार्मूले वह नहीं तलाश सकी! ‘अंटाबेली’ करने वाले दल भी उस समय भाजपा की पंगत में इसलिए बैठ गए थे कि भिनभिनाती मक्खियों के बीच मिष्ठान्न नजर आ रहा था। रामविलास पासवान, शरद यादव, जार्ज फर्नांडीज सभी उस दस्तरख्वान पर जीमने बैठ गए थे, जिसे देख कर कल तक नाक-भौं सिकोड़ते रहे

भाजपा को यह समझ में आ गया है कि ‘राम मंदिर’ हर बार उसी रंग में नजर नहीं आने वाला है। मूर्तियां सिर्फ एक दिन किसी सनसनाती अफवाह के तहत ही पूरे देश में दूध पीने लगती हैं... आप हर दिन तो नाग को भी दूध नहीं पिला सकते। वह एक ज्वार था, जिसमें बह कर लोग उस हद तक चले गए थे कि भाजपा की डूबती नैया को न सिर्फ सहारा मिल गया, बल्कि वह पार भी लग गई। ऐसी सुनामी हर दिन तो आती नहीं है। मंदिर के मुद्दे पर भाजपा का एक बार राज्यारोहण हो गया... मगर उसके बाद क्या! जब तमाम वैज्ञानिक इलाज के बाद यदि ‘मंतरा हुआ तावीज’ पहनते ही मरीज ठीक होने लगे तो श्रेय तावीज या मंतरे पानी को दे दिया जाता है। लेकिन क्या दिल का दौरा पड़ा हो तो आप झाड़-फूंक या गंडा-तावीज बांधेंगे या सीधे आईसीयू में जमा करेंगे?

‘मंदिर’ नहीं होता तो भी भाजपा को तो मौका मिलना ही था।सच बात तो यह है कि कांग्रेस-सरकार से लोग पनाह मांग गए थे और तौबा कर रहे थे... और उसी समय ‘राम-मंदिर’ का मुद्दा यानी मस्जिद का ढहाया जाना हुआ। चूंकि भाजपा के खाते में तो कोई पुण्याई थी नहीं... और जनता ने उसे सबसे बड़े दल के रूप में चुन लिया तो कोई बावला ही यह समझेगा कि मंदिर की वजह से नहीं जीते हैं। अब भाजपा को लगा कि उसके हाथ सत्ता की चाभी लग गई है। मगर जनता ने जो चाभी भाजपा को थमाई थी, उसका ताला हर बार बदला जाता है। जब भाजपा ने उसी पुरानी चाभी से नए ताले को खोलना चाहा तो पता चला, वह चाभी भी आंटे खो चुकी है।

राम-मंदिर को आस्था से जोड़ते हुए भाजपा जनता को भरमाना चाह रही थी... लेकिन जनता ने पांच साल में ही भाजपा का भ्रम तोड़ दिया। भाजपा ने यह भी समझ लिया कि धर्म, जाति, वर्ण का कट्टरवाद छोड़े बगैर उसका गुजारा नहीं है। तभी तो नितिन गडकरी इंदौर में बोल गए थे कि मंदिर के पास मस्जिद के लिए भी जगह दे देंगे। जिस कट्टरवाद की सीढिय़ां चढक़र भाजपा ऊपर पहुंची थी, मालूम पड़ा कि उनसे उतरना अब संभव नहीं है। चूंकि उन्हीं सीढिय़ों से वापस उतरना संभव नहीं था, इसलिए सिवाय कूदने के कोई चारा नहीं था। भाजपा अपना हिंस्र रूप कायम रखना चाहती थी, मगर जनता की यह शर्त थी कि पहले अपने दांत और नाखून निकाल कर अलग करो। यदि शेर के पास यही नहीं होगा तो उसमें और बकरी में क्या फर्क रह जाएगा।

गोधरा -कांड के बाद गुजरात के कत्लेआम को भाजपा ने भुना तो लिया, मगर पांच साल में ही समझ आ गया कि कितने ही सफेद कुर्ते ऊपर से पहन लिए जाएं, अंदर की गंजी अगर खून से सनी है तो दूर से नजर आएगी ही। यही वजह है कि मोदी भले ही गुजरात में दुबारा चुन कर आ गए हों... आज भी उनकी धुजनी कम नहीं हुई है। बिहार से लेकर अमेरिका तक वे बदर हैं। आज अगर भाजपा भी अन्य दलों की तरह मुसलमानों के साथ रोजा-इफ्तार कर रही है तो कारण यही है कि किसी एक वर्ग की नाराजी लेकर आप सत्ता में अपने दम पर कभी नहीं आ सकते हैं। भाजपा जब साथी दलों की डोली चढक़र सत्ता की ड्योढ़ी पर आती है तो वह कमोबेश कांग्रेस नहीं तो उसकी जुड़वां ही लगती।

अब ऐसे में अगर कोर्ट का फैसला भाजपा के अनुसार हो गया तो उसके पास करने के लिए कुछ नहीं रह जाएगा। उसी तरह खुशी मनाई जा सकती है, जैसे कि पाकिस्तान के जीतने या हारने पर कुछ सिरफिरे पटाखे फोड़ लेते हैं।(कल भी)