Wednesday, September 29, 2010

वतन है... हिंदोस्तां हमारा!

सीटी बजते ही हम प्रेशर-कुकर नहीं खोल लेते हैं। सीटी के नीचे से थोड़ी-थोड़ी भाप निकाल कर उसे ठंडा करते हैं और फिर ढक्कन खोलते हैं। अयोध्या का फैसला यकायक आ जाने से कुछ भी हो सकता था। इसलिए कि तब तक हम तय कर पाने की हालत में ही नहीं होते कि इस फैसले पर किस तरह खुश या दु:खी होना है... होना भी है या नहीं। आज भी आमजन तो इसी पशोपेश में रहता है और उसका बेजा फायदा जहरीले दिमाग उठा लेते हैं। जंगल में रहने वाले जानते हैं कि नाग महाराज कहीं से भी निकल कर आ सकते हैं, इसलिए जब-तब सांप देखकर वे उछलने-कूदने नहीं लगते हैं और न ही उनकी घिग्घी बंध जाती है। शेर अगर एकदम सामने आ जाए तो शरीर की सारी इंद्रियां हड़ताल पर चली जाती हैं और पहले से पता हो कि शेर कहीं से भी और कभी भी आ सकता है, तो हम चौकस रहते हैं और मुकाबले के लिए दिमागी तौर पर तैयार भी। अयोध्या मामले में रमेशचंद्र त्रिपाठी की याचिका का यही हासिल है कि इस देश को इतनी मोहलत मिल गई कि उसने अपना मानस बना लिया है कि ऊंट किसी भी करवट बैठे, उसे क्या करना है। न्यायालय ने भी न्याय की गरिमा बनाए रखते हुए मोहलत भी दी और मौका भी। कल यदि इस मामले को और लटका दिया जाता तो न्यायालय पर ही शक की उंगली उठने लगती। रस्सी को यदि कोई सांप समझ रहा है तो उसे यह मौका दिया जाना चाहिए कि वह दृष्टि-दोष दूर कर सके।
अब कल फैसला आ रहा है तो पूरा देश भी तैयार है कि रोज की किट-किट से बेहतर है कि एक बारगी फैसला हो ही जाए। फिर यह कोई आखिरी फैसला तो है नहीं... कि इसके बाद सारे रास्ते बंद हो जाएंगे। इस फैसले से भी हम अगले उस फैसले के लिए तैयार हो सकेंगे, जो सर्वोच्च न्यायालय से आएगा। यानी यह कल आने वाला फैसला भी एक तरह से प्रेशर-कुकर में उमड़-घुमड़ रही भाप को निकलने की राह बताने वाला ही होगा।
इस फैसले के जरिये हम उस फैसले के लिए अपने को तैयार करेंगे, जो अंतिम रूप से आने वाला है। हम यह नहीं कहते कि हमारी समझ को जांचने के लिए न्यायालय ने यह मोहलत दी है... लेकिन यह मौका अगर हमारे हाथ लगा है तो हम बता सकते हैं कि इस तरह के फैसले हमारे बीच हडक़ंप पैदा नहीं कर सकते हैं। हम आपस के मामले उसी तरह निपटाने में यकीन करते हैं जैसे कि बड़े परिवार में किसी बुजुर्ग की राय मानी जाती है। उस समय यह नहीं सोचा जाता कि दा साहब ने इसका पक्ष लिया और उसकी अनदेखी की।
न्यायालय ने अपना काम कर दिया है और अब हमारी बारी है... यह बताने की... बीस साल में हम कितने जहीन और समझदार हो गए हैं। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल के लिए दुनिया भर से खिलाड़ी आए हैं और भारत पर शेष विश्व की नजरें लगी हैं। हम भी इस खेल के भागीदार हैं, भले ही हम दिल्ली में नहीं हों। हम जहां भी हैं, भारत का झंडा हमारे हाथ में है और हमारी छाती पर तिरंगा लगा है। इस खेल में हमें सफल होना ही है। यह ऐसा खेल है, जिसमें हमें ही अपने हाथ से अपने गले में पदक डालना है, क्योंकि हमारी होड़ हम से ही है। इस खेल को हम खेल-भावना से लेकर बाकी दुनिया को बता सकते हैं कि ‘हिंदी हैं हम...वतन है हिंदोस्तां हमारा।’