Wednesday, September 29, 2010

वतन है... हिंदोस्तां हमारा!

सीटी बजते ही हम प्रेशर-कुकर नहीं खोल लेते हैं। सीटी के नीचे से थोड़ी-थोड़ी भाप निकाल कर उसे ठंडा करते हैं और फिर ढक्कन खोलते हैं। अयोध्या का फैसला यकायक आ जाने से कुछ भी हो सकता था। इसलिए कि तब तक हम तय कर पाने की हालत में ही नहीं होते कि इस फैसले पर किस तरह खुश या दु:खी होना है... होना भी है या नहीं। आज भी आमजन तो इसी पशोपेश में रहता है और उसका बेजा फायदा जहरीले दिमाग उठा लेते हैं। जंगल में रहने वाले जानते हैं कि नाग महाराज कहीं से भी निकल कर आ सकते हैं, इसलिए जब-तब सांप देखकर वे उछलने-कूदने नहीं लगते हैं और न ही उनकी घिग्घी बंध जाती है। शेर अगर एकदम सामने आ जाए तो शरीर की सारी इंद्रियां हड़ताल पर चली जाती हैं और पहले से पता हो कि शेर कहीं से भी और कभी भी आ सकता है, तो हम चौकस रहते हैं और मुकाबले के लिए दिमागी तौर पर तैयार भी। अयोध्या मामले में रमेशचंद्र त्रिपाठी की याचिका का यही हासिल है कि इस देश को इतनी मोहलत मिल गई कि उसने अपना मानस बना लिया है कि ऊंट किसी भी करवट बैठे, उसे क्या करना है। न्यायालय ने भी न्याय की गरिमा बनाए रखते हुए मोहलत भी दी और मौका भी। कल यदि इस मामले को और लटका दिया जाता तो न्यायालय पर ही शक की उंगली उठने लगती। रस्सी को यदि कोई सांप समझ रहा है तो उसे यह मौका दिया जाना चाहिए कि वह दृष्टि-दोष दूर कर सके।
अब कल फैसला आ रहा है तो पूरा देश भी तैयार है कि रोज की किट-किट से बेहतर है कि एक बारगी फैसला हो ही जाए। फिर यह कोई आखिरी फैसला तो है नहीं... कि इसके बाद सारे रास्ते बंद हो जाएंगे। इस फैसले से भी हम अगले उस फैसले के लिए तैयार हो सकेंगे, जो सर्वोच्च न्यायालय से आएगा। यानी यह कल आने वाला फैसला भी एक तरह से प्रेशर-कुकर में उमड़-घुमड़ रही भाप को निकलने की राह बताने वाला ही होगा।
इस फैसले के जरिये हम उस फैसले के लिए अपने को तैयार करेंगे, जो अंतिम रूप से आने वाला है। हम यह नहीं कहते कि हमारी समझ को जांचने के लिए न्यायालय ने यह मोहलत दी है... लेकिन यह मौका अगर हमारे हाथ लगा है तो हम बता सकते हैं कि इस तरह के फैसले हमारे बीच हडक़ंप पैदा नहीं कर सकते हैं। हम आपस के मामले उसी तरह निपटाने में यकीन करते हैं जैसे कि बड़े परिवार में किसी बुजुर्ग की राय मानी जाती है। उस समय यह नहीं सोचा जाता कि दा साहब ने इसका पक्ष लिया और उसकी अनदेखी की।
न्यायालय ने अपना काम कर दिया है और अब हमारी बारी है... यह बताने की... बीस साल में हम कितने जहीन और समझदार हो गए हैं। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल के लिए दुनिया भर से खिलाड़ी आए हैं और भारत पर शेष विश्व की नजरें लगी हैं। हम भी इस खेल के भागीदार हैं, भले ही हम दिल्ली में नहीं हों। हम जहां भी हैं, भारत का झंडा हमारे हाथ में है और हमारी छाती पर तिरंगा लगा है। इस खेल में हमें सफल होना ही है। यह ऐसा खेल है, जिसमें हमें ही अपने हाथ से अपने गले में पदक डालना है, क्योंकि हमारी होड़ हम से ही है। इस खेल को हम खेल-भावना से लेकर बाकी दुनिया को बता सकते हैं कि ‘हिंदी हैं हम...वतन है हिंदोस्तां हमारा।’

Monday, September 27, 2010

हिंदी के लेखक और अंग्रेजी के...

जब कुछ साल पहले मसूरी जाने का मौका मिला था... तो सबसे बड़ी ख़ुशी इस बात की थी किमहान लेखक रस्किन बांड से मिलना हो जाएगा। उनकी कई कहानियां और जिंदगी के किस्से याद थे। रास्ते भर उन्हें ही दोहराता रहा! इसमें इतना मगन हो गया कि यही भूल गया कि मसूरी में और कुछ भी देखने को है। मसूरी में देर रात पहुंचने का यह गम था कि रस्किन बांड से अभी मिलना नहीं हो पाएगा।
खैर जैसे तैसे सुबह हुई। दोपहर के करीब उनका पता चल गया कि वे लाल टिब्बा में रहते हैं, जो मसूरी कि सबसे ऊंची चोटी है। टैक्सी वाले ने भी आधी चढ़ाई के बाद ब्रेक लगा दिया कि बस अब और आगे नहीं जा सकता।
वैसे बस स्टैंड पर लोगों से रस्किन बांड का फोन नम्बर भी तलाशा था कि समय ले कर जाऊं... लेकिन वहां तो 197 को भी उनका सही नंबर पता नहीं था... क्योंकि उनके बताए नंबर पर लगाया तो पता चला ये फोन चलन में ही नहीं है। अब यही तरीका बचा था कि जैसे भी हो बस उन तक एक बार पहुँच भर जाएं ...फिर तो अपन हैं ही।
हां, तो लाल टिब्बा... ऊपर तक चढऩे में दादी, नानी सब याद आ गई। जिससे भी पूछो एक ही जवाब ‘वो रहा सामने चढ़ते चले जाओ!’ और चढ़ाई थी कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। साथ वाले और परेशान कि ये कहां आसमान में टांग दिया! रस्किन बांड के नजदीक पहुंचते-पहुंचते तो हालत ये हो गई थी कि एक घर के सामने पानी मांगना पड़ गया था। सांसें इतनी बेतरतीब हो चुकी थीं कि उन्हें सलीके से लाने में ही आधा घंटा लग गया।
जब लगा कि अब दिखाने और बात करने लायक हो गए हैं... तो उनके घर की घंटी बजा दी। दरवाजा खोलने वाले रस्किन बांड ही थे। उन्हें कई-कई बार किताबों और टीवी पर देखा था। दुआ सलाम के बाद बताया कि उनके लेखन के दीवाने हैं और ठेठ इंदौर से चले आ रहे हैं और यह भी कि मसूरी में अभी कुछ नहीं देखा है... सबसे पहले आप को ही देखने और मिलने चले आए हैं। वे खड़े सुनते रहे ‘कभी फोन करके आइएगा ...अभी तो मैं आराम कर रहा हूं। नमस्ते!’ कहते हुए उन्होंने मेरे मुंह पर ही दरवाजा भेड़ दिया। कहां तो चढ़ाई की थकान उतारने की तैयारी थी... और कहां फिर से नीचे उतरने की मेहनत। साथवाले भी ऐसे गुमसुम हुए कि दो दिन तक किसी ने उस हादसे का जिक्र भी नहीं किया। तभी तय कर लिया था कि अब मसूरी कभी नहीं जाऊंगा ...रस्किन बांड से मिलने तो कतई नहीं!
दरअसल मुगालते के साथ जाने का हौसला देने वाले हमारे हिंदी के लेखक रहे हैं! याद आ रहा है करीब तीस साल पहले गीतकार अनूप अशेष इंदौर आए थे और आते से ही बोले थे कि नईम साहब से मिलने देवास जाना है। तब तक मैं उनसे नहीं मिला था। सही कहूं तो देवास भी नहीं देखा था! अपने लेम्ब्रेटा पर बैठाकर अनूप को मैं देवास ले गया था! पता तो पता था मगर रास्ता नहीं मालूम था! एक बन्दे से पूछा तो वो साथ हो लिया कि आ जाइये मेरे पीछे... घर तक छोड़ देता हूं! और बन्दे ने ठीक घर के सामने जाकर कहा ‘ये रहा नईम साहब का घर... अब मैं चलता हंू!’ कहते हुए वो वहीं से पलट गया!
नईम साहब घर में ही थे ...निपट अकेले! मुझे तो यह भी पता नहीं था कि घर में कोई और भी रहता या रहते हैं! थोड़ी देर तक तो यूं ही बातें होती रही... फिर नईमजी उठे और चाय बनाने लगे। हमने कहा भी कि रस्ते भर चाय पीते हुए ही आ रहे हैं तो कहने लगे ‘मियाँ तुमने पी ली तो क्या हमने भी पी ली! हम तो पियेंगे’ कहते हुए चाय का पानी चढ़ा दिया!
चाय के बाद फिर इधर-उधर की, बातें होने लगी! मगर उनकी बैचेनी कुछ और ही बात कर रही थी!
‘अभी बजे हैं बारह... यानी कम से कम दो घंटे पहले तो निकले ही होगे इंदौर से... यानी खाना तो नहीं खाया होगा... तो चलो अब हम खाना पकाएंगे!’ हमने उन्हें बहुत रोकने की कोशिश की... मगर मान जाएं तो उन्हें नईम कहे कौन! अपने हाथ से.... जी हां वे रोटी बेलन चकले की मदद से नहीं बनाते थे, वो करारी रोटियां खिलाईं कि सत्या के गाने ‘गौरी सपने में मिलती है, में भुनी है करारी है’ सुनता हूं तो वो ही रोटियां याद आती हैं! हरे मटर की उतनी ही लाजवाब तरकारी ...और डांट के साथ इसरार ऐसा कि पेट भर जाए मन खाली होता जाए!
तो ऐसी छवि थी अपने दिमाग में तो लेखक की! कवि राजेश जोशी अपनी पत्नी के तबादले की वजह से उन दिनों इंदौर में थे! मिलने की बहुत इच्छा थी! जान-पहचानवालों से भी कहा कि भैया मिलने जाओ तो मुझे भी ले लेना! मेरा उनसे परिचय नहीं है! पर कोई खुदा का बन्दा तैयार नहीं हुआ! तब एक रविवार की सर्द सुबह मैं उनके घर पहुंच गया! यहीं इंदौर में जीपीओ के पास बैंक कालोनी में घर था उनका! गया तो फिर ऐसा गया कि सुबह से दोपहर हो गई! पोहा जलेबी चाय और ना जाने क्या-क्या और कितना खाया... कि कई दिनों तक किसी भी किस्म की भूख नहीं लगी! राजेश जोशी ने तो यह भी नहीं पूछा कि आप कौन हैं और करते क्या हैं, मगर बातें इस तरह करते रहे जैसे ना जाने कब से जानते रहे हो!
पिछले ही साल कवि चंद्रकांत देवताले से मिलने उज्जैन गए थे... तो यह रहस्य खुला था कि चाय बनाने के लिए सिर्फ दूध ,शकर या चायपत्ती दरकार नहीं होती है... उसमें आत्मा भी डालना होती है! वैसी आत्माशुदा चाय की तलब जब भी होती है, मैं उज्जैन भाग लेता हंू! देवास को अगर मैं नईमजी की वजह से जानता हूं तो उज्जैन में सिर्फ देवताले ही रहते हैं!
अब आप ही बताइये कि हिन्दीवालों ने जब मुझे इतना बिगाड़ रखा हो तो मैं कैसे भय खाता कि अंग्रेजी का कोई लेखक दूरदेस से आए अपने पाठक के मुंह पर यूं दरवाजा मार सकता है! हां, उसके बाद यह जरूर हुआ कि मैं अंग्रेजी के किसी भी नामी लेखक से मिलने कभी नहीं गया...शायद जाऊंगा भी नहीं!
(मैं यह नहीं मानता कि भाषा की वजह से लेखक ऐसे होते हैं..., यह तो उनकी अपनी खसलत होती है। यदि आपके साथ भी लेखकों की ऐसी आदतों से जुड़े किस्से हैं तो जरूर लिख भेजिए...!)

Thursday, September 23, 2010

एक रुका हुआ फैसला (तीन)

परसाईजी की रचना याद आती है कि जरा-सी टक्कर पर लडऩे-भिडऩे वाले दो युवक, लोगों की समझाइश पर भरत-मिलाप के लिए तैयार हो जाते हैं, तभी उनका आगमन होता है, जो यह मानते हैं कि ऐसे मामलों में उनकी राय-सलाह और समझ का दखल जरूरी है... और वे निपट चुके झगड़े को फिर से ऐसे खोलते हैं कि भरत-मिलाप के लिए उठी बांहें फिर से मुक्केबाजी के लिए फडक़ने लगती हैं। वे दोनों फिर लडऩे लगते हैं और भडक़ाने वाले वहां से खिसक लेते हैं। हमारे यहां राजनीति वाले ऐसे ही हैं कि आपसी समझ और भाईचारे से रहना उन्हें सुहाता ही नहीं है और वे इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि इनमें जैसे भी हो, ले-दे हो जाए! अंग्रेजों ने भारत भले ही छोड़ दिया हो, लेकिन ‘फूट डालो और राज करो’ का फार्मूला हमारे नेताओं को दे गए हैं। तभी तो जनता को जब-तब भडक़ाया जाता है, लड़ाई करवाई जाती है और मरवाया जाता है। इस तरह के झगड़ों में नेताओं पर मुकदमे चलते रहते हों, जान तो आम आदमी की ही जाती है। जो दंगों में शामिल होता है, वह भी मारा जाता है और जो इनकार कर देता है, उसकी भी जान घर बैठे जाती है। यदि हिंदू और मुसलिम समझ से काम ले रहे हैं तो इन नेताओं की अक्ल पर से पत्थर क्यों नहीं हटते? जब हम सोचते हैं कि राम मंदिर का सबसे बड़ा रोड़ा कौन है तो एक ही नाम नजर आता है- हाशिम अंसारी। ये वो शख्स है, जो इस झगड़े में बाबरी मसजिद पक्षकार है। साठ साल से अंसारी साहब मुकदमा लड़ रहे हैं और वहीं अयोध्या में रहते हैं। दस कम सौ साल उनकी उम्र है। इसी तरह मुसलिम नजर से देखें तो मंदिर के सबसे बड़े पैरोकार महंत रामचंद्र परमहंसदास, जो यहीं अयोध्या में रहते थे और अंसारी के सुबह-शाम के दोस्त थे। जब महंत का दो साल पहले देहावसान हुआ तो हाशिम अंसारी को रोते हुए देखा गया था। हाशिम अंसारी मुसलिम समाज के पक्षकार हैं, मगर आज तक उन पर एक तिनका या कंकर भी किसी ने नहीं फेंका है। महंत को भी किसी ने नहीं धमकाया, सताया या परेशान किया। यह कैसे संभव हुआ कि इन पक्षकारों की कोई पुलिस-सुरक्षा नहीं थी (और ना ही इन्हें कभी जरूरत ही महसूस हुई) और इन पर किसी ने उंगली तक नहीं उठाई, जबकि हाशिम अंसारी अपने घर में हमेशा अकेले ही रहते हैं? अयोध्या ने नब्बे के दशक में सबसे बुरा दंगा देखा है, लेकिन हाशिम अंसारी को किसी ने नहीं छुआ। वैसे भारत के हर शहर-गांव में हामिद अंसारी और महंतजी हैं। मगर हर जगह उनके नाम, रूप और काम अलग हैं। फिर क्यों हम बहकावे में आ जाते हैं? क्या दोष सिर्फ बहकानेवालों का ही है? क्या हम बातों में आ जाने वाले भी उतने ही जिम्मेदार नहीं हैं? अगर वे सांप हैं और जहर उगल रहे हैं तो हम भी तो चंदन हैं... हम कैसे सुगंध से नाता तोड़ सकते हैं? बहकाने वाले आते हैं और बहका कर चले जाते हैं... मगर हम... हम क्या ऐसा नहीं कर सकते कि बहकाने वालों का ही दिमाग बदल दें? हम भेड़ों की तरह सिर हिलाते हुए सुनते क्यों रहते हैं? अपनी समझ का उपयोग आखिर हम कब करेंगे? हामिद अंसारी और महंतजी की दोस्ती क्या सिर्फ अयोध्या में ही संभव है? क्या ऐसे रिश्ते हमारे आसपास हम नहीं देखते हैं? जुम्मन शेख और अलगू चौधरी की दोस्ती में गलतफहमी भले ही हो जाए... वह टूटती नहीं है, बल्कि दरार पटने पर और गाढ़ी हो जाती है। यह भारत का ही मिजाज है कि जुम्मन शेख का कोई काम अलगू चौधरी के बगैर पूरा नहीं होता है। संत खड़ाऊ पहनते हैं तो मुसलमान कारीगर ही उसे अपने खून-पसीने से आकार देते हैं। यहां तक कि अयोध्या के रामजी का ‘वेष’ भी मुसलमान दर्जी ही तैयार करता है। ...तो फिर हम क्यों डरे हुए हैं- एक रुके हुए फैसले के आ जाने से? हमारी जिंदगी के मानी तो नहीं बदल जाएंगे एक फैसले से? रिश्तों की गरमाहट इस फैसले से बरफ की तरह जमने वाली तो नहीं है। जब हमारे अपने ही आसपास हैं तो हम डर आखिर किससे रहे हैं? ठीक है कि हर जगह सारे देवदूत नहीं हो सकते, लेकिन यह भी तो सच है कि दानवों का संहार करने के लिए देवता ऊपर से तो नहीं आते हैं। पैगंबर बन कर ही वे दानव-वध करते हैं। तो क्या हम अपने आसपास के ऐसे दानवों को खुली छूट दे देंगे... कि वो हवन-सामग्री नष्ट कर दें और पवित्र आग में पानी डाल दें? हर धर्म में दानवों के साथ एक जैसा ही बर्ताव होता है। जब सारे धर्म के दानव एक जैसे ही होते हैं तो सारे धर्म के मानव एक जैसे क्यों नहीं हो जाते? हम डर रहे हैं तो अपने ही डर से। इस डर को निकाल बाहर करने का यही मौका है!(कल भी...)

Wednesday, September 22, 2010

डर के आगे जीत है

अयोध्या का फैसला मंदिर के पक्ष में हो या मस्जिद के... कांग्रेस को कुछ ज्यादा फर्क नहीं पडऩे वाला है। उसके तो दोनों ही हाथों में लड्डू हैं... क्योंकि कांग्रेस का मध्यमार्ग ही उसकी संजीवनी बूटी है। भाजपा जब हिंदुओं के पक्ष में खड़ी होती है तो वह मुसलमानों के खिलाफ हो जाती है। गोधरा-कांड के बाद गुजरात की हत्याएं उसी का सबूत हैं, जबकि कांग्रेस, वोट की खातिर ही सही, मुसलमानों के साथ खड़ी नजर आती है तो वह हिंदुओं के खिलाफ खड़ी नहीं हो जाती है। इसीलिए उसे इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि फैसले का ऊंट किस करवट बैठता है। कांग्रेस ने कभी नहीं कहा कि वहां मस्जिद बनाएंगे या मंदिर तो वहीं होकर रहेगा। भाजपा भले ही कहे कि ‘कसम राम की खाते हैं... मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा उसने नहीं दिया था, मगर सुर में सुर तो भाजपा ने भी मिलाया ही है। कांग्रेस ने शासन करने का यह फार्मूला इजाद कर लिया कि खुलकर किसी जाति, मजहब, वर्ग, वर्ण का साथ मत दो और ना ही विरोध करो। भारत के लोकतंत्र की यही खूबी है कि आप तमाम खल्वारों को खुश करके सारे मूंछ वालों की नाराजी इसलिए नहीं ले सकते कि उसके वोट का भी उतना ही वजन है। वैसे, देखा जाए तो गणित के हिसाब से भाजपा का हिसाब ठीक था कि सौ फीसदी आबादी में से यदि चौथाई को नाराज भी कर दिया तो बाकी वोट तो अपने पक्के। यह शेखचिल्ली का सपना तो हो सकता है, मगर लोकतंत्र के बीज-गणित से इसका कोई रिश्ता नहीं है। अभी बिहार में चुनाव होने हैं। वहां बीस फीसदी मुसलमान वोटर हैं, मगर फिर भी सारे दल क्यों हर एक की दाढ़ी सहला रहे हैं... इसीलिए ना कि ये दस, बीस या पच्चीस फीसदी वोट जीत भले ही ना तय कर सकें... हार तो लिख ही सकते है आज़ादी के ठीक बाद कांग्रेस ने यह बीज-गणित समझ लिया था और भाजपा को यह तब समझ में आ रहा है, जबकि प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने को मुंह धोकर बैठे लौह-पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को मुंह की खाना पड़ी। तभी तो आज आडवाणी ही कह रहे हैं कि अभी सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खुले हैं। 24 सितंबर को होने वाला फैसला अंतिम नहीं है। भाजपा को भी न मंदिर कल बनाना था, न आज बनाना है और ना कल बनाने वाली है... उसे तो सरकार बनाने की चिंता थी और इसी मकसद से उसने विध्वंस में हाथ लगाया था। जबकि भाजपा के लंडुरे-दल तो इसी काम के लिए पैदा हुए थे और उनकी सांसें तो इसी ऑक्सीजन सिलेंडर से तय हो रही थीं। आज भाजपा उतनी मुखर नहीं है और साथी दलों की भौंहें तन रही हैं, दांत पिस रहे हैं तो वजह यही है कि यही उनकी प्राण-वायु है। बताइये, राम मंदिर का मसला अगर मिल-बैठकर हल हो जाए तो बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद् (यहां राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ को नहीं लपेटा जा सकता, क्योंकि उनके पास इसके अलावा भी कई अभियान हैं।) जैसे संगठनों के पास करने के लिए क्या रह जाएगा? अशोक सिंघल, प्रवीण तोगडिय़ा और विनय कटियार आखिर किस मुद्दे पर मुंह खोल पाएंगे। भाजपा के लिए मंदिर अगर गले की हड्डी है, तो इन दलों के लिए अमृतधारा से कम नहीं है। कांग्रेस के साथ इस तरह के वजन नत्थी नहीं हैं कि उसे शर्माशर्मी ही सही, इस या उस पक्ष के लिए काम करना पड़े। यहां नीचे से ऊपर तक कांग्रेस है! जबकि भाजपा अगर आज थोड़ा भी खुल कर आ जाए तो उसकी दो-चार राज्य सरकार उलट जाएं। बिहार में चुनाव सिर पर हैं और वहां तो नरेंद्र मोदी की सशरीर हाजरी को लेकर ही कुछ तय नहीं हो पा रहा है। मोदी अगर जाते हैं तो नीतीश कुमार छिटक कर दूर हो जाएंगे। भाजपा का गुजारा बगैर नीतीश कुमार के नहीं होने वाला। पेट भी अपना है और पीठ भी अपनी। साथी दलों को उकसाने और हौसला-अफजाई करने में भाजपा ने कोताही नहीं बरती। इसलिए अब वह गुमसुम रहने का ढोंग भी नहीं कर सकेगी, लेकिन उसे खुद की सीमा तय करना होगी, जिसकी शुरुआत आडवाणी के बयान से हो गई है । जब दोनों ही दल अयोध्या मामले में ‘हम नहीं... हम नहीं’ का वाचन कर रहे हैं तो फिर पूरा देश 24 सितंबर के नाम से धूज क्यों रहा है? कौन हैं, जिनका हमें डर है? या ये सिर्फ हमारा कोरा डर ही है, जो पुराने हादसों की कोख से जन्मा है? अगर दिमागी तौर पर पूरा देश ‘डर’ के लिए मन बना चुका है तो क्या यह उम्मीद करवट लेती नजर नहीं आती है कि उस दिन कुछ नहीं होगा? 24 सितंबर भी इस माह बाकी तारीखों की तरह ही आम होगा? हम नहीं चाहेंगे तो इस दिन को अलग से याद करने की कोई वजह नहीं होगी। याद रखें, करने वाले कुछ हैं और रोकने वाले अनगिनत...! हमें तय करना है कि हम किधर हैं।(कल भी)

Tuesday, September 21, 2010

लट्ठ को बांसुरी बनाने की मजबूरी

क्या भारतीय जनता पार्टी यह चाह रही है कि अयोध्या-मामले में फैसला मंदिर के हक में ही आए? क्या आस्थावादी दल के नेता धर्मस्थलों पर जाकर ‘मानता’ मान रहे हैं कि हमारे पक्ष में फैसला हो जाए? क्या भाजपा उस दिन उछलकर आसमान में थिगला लगा देगी, जब मंदिर के लिए फैसला आएगा? भाजपा को खुश होना रास आएगा या मुट्ठी कसते और दांत पीसते हुए नाराजी का सार्वजनिक-प्रदर्शन? भाजपा की यह मजबूरी है कि उसकी छवि लट्ठ लेकर चलने वाली है, मगर जनता उसे बांसुरी पकडऩे पर मजबूर कर देती है। शासन करने के लिए बांस नहीं, बांसुरी दरकार होती है, जबकि भाजपा को बांसुरी कम और बांस की ज्यादा दत है। इसीलिए उसकी मंशा यही है कि या तो फैसला मंदिर के खिलाफ जाए या फिर यह अनंतकाल तक यूं ही टलता रहे, जैसे कि साठ साल से टल रहा है।

मंदिर का मुद्दा, काठ की ऐसी हांडी है, जिसे एक बार ही चढ़ाया जा सकता है... और इस ‘लाइफ लाइन’ से भाजपा ने ‘दिल्ली-फतह’ कर ली थी! उसने दिल्ली पाने का तरीका तो इजाद कर लिया था, मगर वहां बने रहने के फार्मूले वह नहीं तलाश सकी! ‘अंटाबेली’ करने वाले दल भी उस समय भाजपा की पंगत में इसलिए बैठ गए थे कि भिनभिनाती मक्खियों के बीच मिष्ठान्न नजर आ रहा था। रामविलास पासवान, शरद यादव, जार्ज फर्नांडीज सभी उस दस्तरख्वान पर जीमने बैठ गए थे, जिसे देख कर कल तक नाक-भौं सिकोड़ते रहे

भाजपा को यह समझ में आ गया है कि ‘राम मंदिर’ हर बार उसी रंग में नजर नहीं आने वाला है। मूर्तियां सिर्फ एक दिन किसी सनसनाती अफवाह के तहत ही पूरे देश में दूध पीने लगती हैं... आप हर दिन तो नाग को भी दूध नहीं पिला सकते। वह एक ज्वार था, जिसमें बह कर लोग उस हद तक चले गए थे कि भाजपा की डूबती नैया को न सिर्फ सहारा मिल गया, बल्कि वह पार भी लग गई। ऐसी सुनामी हर दिन तो आती नहीं है। मंदिर के मुद्दे पर भाजपा का एक बार राज्यारोहण हो गया... मगर उसके बाद क्या! जब तमाम वैज्ञानिक इलाज के बाद यदि ‘मंतरा हुआ तावीज’ पहनते ही मरीज ठीक होने लगे तो श्रेय तावीज या मंतरे पानी को दे दिया जाता है। लेकिन क्या दिल का दौरा पड़ा हो तो आप झाड़-फूंक या गंडा-तावीज बांधेंगे या सीधे आईसीयू में जमा करेंगे?

‘मंदिर’ नहीं होता तो भी भाजपा को तो मौका मिलना ही था।सच बात तो यह है कि कांग्रेस-सरकार से लोग पनाह मांग गए थे और तौबा कर रहे थे... और उसी समय ‘राम-मंदिर’ का मुद्दा यानी मस्जिद का ढहाया जाना हुआ। चूंकि भाजपा के खाते में तो कोई पुण्याई थी नहीं... और जनता ने उसे सबसे बड़े दल के रूप में चुन लिया तो कोई बावला ही यह समझेगा कि मंदिर की वजह से नहीं जीते हैं। अब भाजपा को लगा कि उसके हाथ सत्ता की चाभी लग गई है। मगर जनता ने जो चाभी भाजपा को थमाई थी, उसका ताला हर बार बदला जाता है। जब भाजपा ने उसी पुरानी चाभी से नए ताले को खोलना चाहा तो पता चला, वह चाभी भी आंटे खो चुकी है।

राम-मंदिर को आस्था से जोड़ते हुए भाजपा जनता को भरमाना चाह रही थी... लेकिन जनता ने पांच साल में ही भाजपा का भ्रम तोड़ दिया। भाजपा ने यह भी समझ लिया कि धर्म, जाति, वर्ण का कट्टरवाद छोड़े बगैर उसका गुजारा नहीं है। तभी तो नितिन गडकरी इंदौर में बोल गए थे कि मंदिर के पास मस्जिद के लिए भी जगह दे देंगे। जिस कट्टरवाद की सीढिय़ां चढक़र भाजपा ऊपर पहुंची थी, मालूम पड़ा कि उनसे उतरना अब संभव नहीं है। चूंकि उन्हीं सीढिय़ों से वापस उतरना संभव नहीं था, इसलिए सिवाय कूदने के कोई चारा नहीं था। भाजपा अपना हिंस्र रूप कायम रखना चाहती थी, मगर जनता की यह शर्त थी कि पहले अपने दांत और नाखून निकाल कर अलग करो। यदि शेर के पास यही नहीं होगा तो उसमें और बकरी में क्या फर्क रह जाएगा।

गोधरा -कांड के बाद गुजरात के कत्लेआम को भाजपा ने भुना तो लिया, मगर पांच साल में ही समझ आ गया कि कितने ही सफेद कुर्ते ऊपर से पहन लिए जाएं, अंदर की गंजी अगर खून से सनी है तो दूर से नजर आएगी ही। यही वजह है कि मोदी भले ही गुजरात में दुबारा चुन कर आ गए हों... आज भी उनकी धुजनी कम नहीं हुई है। बिहार से लेकर अमेरिका तक वे बदर हैं। आज अगर भाजपा भी अन्य दलों की तरह मुसलमानों के साथ रोजा-इफ्तार कर रही है तो कारण यही है कि किसी एक वर्ग की नाराजी लेकर आप सत्ता में अपने दम पर कभी नहीं आ सकते हैं। भाजपा जब साथी दलों की डोली चढक़र सत्ता की ड्योढ़ी पर आती है तो वह कमोबेश कांग्रेस नहीं तो उसकी जुड़वां ही लगती।

अब ऐसे में अगर कोर्ट का फैसला भाजपा के अनुसार हो गया तो उसके पास करने के लिए कुछ नहीं रह जाएगा। उसी तरह खुशी मनाई जा सकती है, जैसे कि पाकिस्तान के जीतने या हारने पर कुछ सिरफिरे पटाखे फोड़ लेते हैं।(कल भी)

Thursday, September 16, 2010

...होटल के अन्दर

होटल के अन्दर जेब और पेट खाली हो तो दोस्ती और होटल की बेहद जरूरत रहती है, और अगर दोस्त का होटल हो तो ये उम्मीद हमेशा रोशन रहती है कि कहीं और जुगाड़ हो न हो, दोस्त की होटल पर गुजारे लायक पेट तो भर ही जाएगा।
पहले वह बुलाकर ले जाता था, लेकिन बाद में इस तरह पहुंचते थे कि वह सूरत देखे बगैर ही पेट के पीठ से चिपके होने का पता लगा लिया करता था। ‘‘क्या खाएगा...?’’ यह शायद उसने पहली बार भी नहीं पूछा था। फिर तो मौका देखकर ही वह ‘एक दाल, चार तंदूरी’ का आर्डर सरका दिया करता था।
कहने को उसकी होटल थी, मगर गल्ले या काउंटर पर तो पिता का ही कब्ज़ा था। तब यह तालमेल ऐसा बैठाया जाता था कि पिता गल्ले पर नहीं हो...और दोस्त हाजिर हो। दोस्ती में तो उधार ही स्वीकृत नहीं है, यहां तो मामला मुफ्तखोरी यानी सदाव्रत का था।
कई बार 'एक दाल और चार तंदूरी’ के बजाय दाल-चावल खाने का मन करता था। पहले तो यही मान लेते थे कि कुछ मिल तो रहा है। लेकिन जब भी वह किसी और होटल में जिमाने ले जाता तो भी ‘चावल’ का च भी नहीं बोलता। ना खुद खाता और ना खाने देता।
ऐसे ही एक दिन पूछ लिया कि वह चावल से क्यों खार खाए रहता है। उसका जवाब था ‘‘होटलवाला हूं, जानता हूं...ताजा चावल मिलने कि उम्मीद नहीं के बराबर हैं। इसीलिए अपनी होटल में भी न खुद चावल खाता हूं, न तुझे खाने देता हूं। आम तौर पर बासी ही होते हैं...गरम पानी में गरम कर परस दिए जाते हैं।’’
वह पनीर की भी आवक रोके रखता था कि ...यह ताजा मिले, कोई गारंटी नहीं। और सलाद खाने से अच्छा है...उसमें से ‘स’ निकल दिया जाए। इस बात को पच्चीस-तीस बरस हो गए...लेकिन आज भी होटल में चावल देखकर कांप जाता हूं, फिर भले ही कितने ताजे, सफेद और सुंदर चावल क्यों न नजर आ रहे हों। पनीर के नाम पर आंख में नीर उतरने लगता है और सलाद तो बस टेबल की शोभा बढ़ाने के लिए सजावटी सामान की तरह ही नजर आता है मुझे। उस दोस्त ने बताया था- सलाद की बजाय कसम खा लो...कि सलाद नहीं खाऊंगा।
पिछले हफ्ते जब इंदौर की नामी होटलों के किचन की हकीकत तस्वीरों में नजर आई तो उस दोस्त की बहुत याद आई। तीस बरसों में होटलें आलीशान, चमक-दमक वाली होती गईं, मगर उनके रसोड़े वैसे ही चिराग तले अंधेरा जैसे रहे। यदि वहां काम करते लोगों को आप देख लें तो खाने के पहले ही बेहोश हो जाएं। वहां स्थायी अंधेरा...बीमार-सा पीला गुलुप नजर आता है। बनियान और लुंगी जैसा कुछ लपेटे कारीगर यानी उस्ताद भट्टी पर बैठे रहते हैं। बीड़ी फूंकते रहते हैं...या तंबाकू चबाते रहते हैं। दस से बारह घंटे काम करते हैं...और आम तौर पर उसी किचन में सो जाते हैं। अमूमन होटलों के किचन रात में बेडरूम हो जाते हैं।
कुछ साल पहले कोच्चि की एक होटल में जब खाने के लिए गया तो...वाह... खाने से पहले ही पेटभर गया। शीशे की दीवार का किचन था। चारों तरफ से आप देख सकते थे कि जो आर्डर आपने दिया है, वह कैसे बन रहा है और कौन बना रहा है।
उस दिन खाने में दोगुना स्वाद आया। खाना तो ठीक ही था...लेकिन यह संतोष काफी था स्वाद बढ़ाने के लिए...कि जो खा रहे हैं... ताजा है....अपनी आंखों के सामने बना है।
बड़े शहरों के बड़े-बड़े होटलों में भी यह संतोष नहीं मिलता है। यही वजह है कि ऊंची दुकान पर नीचा पकवान खाने की बजाय सड़क किनारों के ढाबों पर भरोसा किया जाता है। इंदौर के आसपास ऐसे ढाबे कम ही हैं कि आप परिवार के साथ मुंह उठाकर चले जाएं। हां, यार-दोस्तों के साथ ये ढाबे उपयोगी और मुफीद रहते हैं। आप आंखों के सामने सारी गपड़-सपड़ देख सकते हैं।
पिछले हफ्ते अखबारों में होटलों का सच देखा तो...मितली-सी आने लगी है। क्या कोई होटल ऐसा अंदरुनी चित्र पेश करेगा कि भूख झटके से जाग जाए, लार टपकने लगे और मन के सारे डर दूर हो जाएं? यह सच है कि घर से अच्छा खाना कहीं नहीं होता है...लेकिन घर के अलावा भी तो कभी कभी कहीं और खाने का मन करता है या नहीं। ...और वो लोग क्या करें ...जिनके घर कहीं और हैं या घर हैं ही नहीं। उनके लिए तो होटल ही घर है...। मगर होटलवाले यह कोशिश करते नजर नहीं आते हैं कि होटल भी कभी-कभी ‘घर’ की तरह लगे। क्या ही अच्छा हो...कि कोच्चि या ढाबे की तरह होटलों में भी आप अपना खाना बनते हुए देख सकें ..., ऐसा इंतजाम हो।