Thursday, September 16, 2010

...होटल के अन्दर

होटल के अन्दर जेब और पेट खाली हो तो दोस्ती और होटल की बेहद जरूरत रहती है, और अगर दोस्त का होटल हो तो ये उम्मीद हमेशा रोशन रहती है कि कहीं और जुगाड़ हो न हो, दोस्त की होटल पर गुजारे लायक पेट तो भर ही जाएगा।
पहले वह बुलाकर ले जाता था, लेकिन बाद में इस तरह पहुंचते थे कि वह सूरत देखे बगैर ही पेट के पीठ से चिपके होने का पता लगा लिया करता था। ‘‘क्या खाएगा...?’’ यह शायद उसने पहली बार भी नहीं पूछा था। फिर तो मौका देखकर ही वह ‘एक दाल, चार तंदूरी’ का आर्डर सरका दिया करता था।
कहने को उसकी होटल थी, मगर गल्ले या काउंटर पर तो पिता का ही कब्ज़ा था। तब यह तालमेल ऐसा बैठाया जाता था कि पिता गल्ले पर नहीं हो...और दोस्त हाजिर हो। दोस्ती में तो उधार ही स्वीकृत नहीं है, यहां तो मामला मुफ्तखोरी यानी सदाव्रत का था।
कई बार 'एक दाल और चार तंदूरी’ के बजाय दाल-चावल खाने का मन करता था। पहले तो यही मान लेते थे कि कुछ मिल तो रहा है। लेकिन जब भी वह किसी और होटल में जिमाने ले जाता तो भी ‘चावल’ का च भी नहीं बोलता। ना खुद खाता और ना खाने देता।
ऐसे ही एक दिन पूछ लिया कि वह चावल से क्यों खार खाए रहता है। उसका जवाब था ‘‘होटलवाला हूं, जानता हूं...ताजा चावल मिलने कि उम्मीद नहीं के बराबर हैं। इसीलिए अपनी होटल में भी न खुद चावल खाता हूं, न तुझे खाने देता हूं। आम तौर पर बासी ही होते हैं...गरम पानी में गरम कर परस दिए जाते हैं।’’
वह पनीर की भी आवक रोके रखता था कि ...यह ताजा मिले, कोई गारंटी नहीं। और सलाद खाने से अच्छा है...उसमें से ‘स’ निकल दिया जाए। इस बात को पच्चीस-तीस बरस हो गए...लेकिन आज भी होटल में चावल देखकर कांप जाता हूं, फिर भले ही कितने ताजे, सफेद और सुंदर चावल क्यों न नजर आ रहे हों। पनीर के नाम पर आंख में नीर उतरने लगता है और सलाद तो बस टेबल की शोभा बढ़ाने के लिए सजावटी सामान की तरह ही नजर आता है मुझे। उस दोस्त ने बताया था- सलाद की बजाय कसम खा लो...कि सलाद नहीं खाऊंगा।
पिछले हफ्ते जब इंदौर की नामी होटलों के किचन की हकीकत तस्वीरों में नजर आई तो उस दोस्त की बहुत याद आई। तीस बरसों में होटलें आलीशान, चमक-दमक वाली होती गईं, मगर उनके रसोड़े वैसे ही चिराग तले अंधेरा जैसे रहे। यदि वहां काम करते लोगों को आप देख लें तो खाने के पहले ही बेहोश हो जाएं। वहां स्थायी अंधेरा...बीमार-सा पीला गुलुप नजर आता है। बनियान और लुंगी जैसा कुछ लपेटे कारीगर यानी उस्ताद भट्टी पर बैठे रहते हैं। बीड़ी फूंकते रहते हैं...या तंबाकू चबाते रहते हैं। दस से बारह घंटे काम करते हैं...और आम तौर पर उसी किचन में सो जाते हैं। अमूमन होटलों के किचन रात में बेडरूम हो जाते हैं।
कुछ साल पहले कोच्चि की एक होटल में जब खाने के लिए गया तो...वाह... खाने से पहले ही पेटभर गया। शीशे की दीवार का किचन था। चारों तरफ से आप देख सकते थे कि जो आर्डर आपने दिया है, वह कैसे बन रहा है और कौन बना रहा है।
उस दिन खाने में दोगुना स्वाद आया। खाना तो ठीक ही था...लेकिन यह संतोष काफी था स्वाद बढ़ाने के लिए...कि जो खा रहे हैं... ताजा है....अपनी आंखों के सामने बना है।
बड़े शहरों के बड़े-बड़े होटलों में भी यह संतोष नहीं मिलता है। यही वजह है कि ऊंची दुकान पर नीचा पकवान खाने की बजाय सड़क किनारों के ढाबों पर भरोसा किया जाता है। इंदौर के आसपास ऐसे ढाबे कम ही हैं कि आप परिवार के साथ मुंह उठाकर चले जाएं। हां, यार-दोस्तों के साथ ये ढाबे उपयोगी और मुफीद रहते हैं। आप आंखों के सामने सारी गपड़-सपड़ देख सकते हैं।
पिछले हफ्ते अखबारों में होटलों का सच देखा तो...मितली-सी आने लगी है। क्या कोई होटल ऐसा अंदरुनी चित्र पेश करेगा कि भूख झटके से जाग जाए, लार टपकने लगे और मन के सारे डर दूर हो जाएं? यह सच है कि घर से अच्छा खाना कहीं नहीं होता है...लेकिन घर के अलावा भी तो कभी कभी कहीं और खाने का मन करता है या नहीं। ...और वो लोग क्या करें ...जिनके घर कहीं और हैं या घर हैं ही नहीं। उनके लिए तो होटल ही घर है...। मगर होटलवाले यह कोशिश करते नजर नहीं आते हैं कि होटल भी कभी-कभी ‘घर’ की तरह लगे। क्या ही अच्छा हो...कि कोच्चि या ढाबे की तरह होटलों में भी आप अपना खाना बनते हुए देख सकें ..., ऐसा इंतजाम हो।