Thursday, September 23, 2010

एक रुका हुआ फैसला (तीन)

परसाईजी की रचना याद आती है कि जरा-सी टक्कर पर लडऩे-भिडऩे वाले दो युवक, लोगों की समझाइश पर भरत-मिलाप के लिए तैयार हो जाते हैं, तभी उनका आगमन होता है, जो यह मानते हैं कि ऐसे मामलों में उनकी राय-सलाह और समझ का दखल जरूरी है... और वे निपट चुके झगड़े को फिर से ऐसे खोलते हैं कि भरत-मिलाप के लिए उठी बांहें फिर से मुक्केबाजी के लिए फडक़ने लगती हैं। वे दोनों फिर लडऩे लगते हैं और भडक़ाने वाले वहां से खिसक लेते हैं। हमारे यहां राजनीति वाले ऐसे ही हैं कि आपसी समझ और भाईचारे से रहना उन्हें सुहाता ही नहीं है और वे इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि इनमें जैसे भी हो, ले-दे हो जाए! अंग्रेजों ने भारत भले ही छोड़ दिया हो, लेकिन ‘फूट डालो और राज करो’ का फार्मूला हमारे नेताओं को दे गए हैं। तभी तो जनता को जब-तब भडक़ाया जाता है, लड़ाई करवाई जाती है और मरवाया जाता है। इस तरह के झगड़ों में नेताओं पर मुकदमे चलते रहते हों, जान तो आम आदमी की ही जाती है। जो दंगों में शामिल होता है, वह भी मारा जाता है और जो इनकार कर देता है, उसकी भी जान घर बैठे जाती है। यदि हिंदू और मुसलिम समझ से काम ले रहे हैं तो इन नेताओं की अक्ल पर से पत्थर क्यों नहीं हटते? जब हम सोचते हैं कि राम मंदिर का सबसे बड़ा रोड़ा कौन है तो एक ही नाम नजर आता है- हाशिम अंसारी। ये वो शख्स है, जो इस झगड़े में बाबरी मसजिद पक्षकार है। साठ साल से अंसारी साहब मुकदमा लड़ रहे हैं और वहीं अयोध्या में रहते हैं। दस कम सौ साल उनकी उम्र है। इसी तरह मुसलिम नजर से देखें तो मंदिर के सबसे बड़े पैरोकार महंत रामचंद्र परमहंसदास, जो यहीं अयोध्या में रहते थे और अंसारी के सुबह-शाम के दोस्त थे। जब महंत का दो साल पहले देहावसान हुआ तो हाशिम अंसारी को रोते हुए देखा गया था। हाशिम अंसारी मुसलिम समाज के पक्षकार हैं, मगर आज तक उन पर एक तिनका या कंकर भी किसी ने नहीं फेंका है। महंत को भी किसी ने नहीं धमकाया, सताया या परेशान किया। यह कैसे संभव हुआ कि इन पक्षकारों की कोई पुलिस-सुरक्षा नहीं थी (और ना ही इन्हें कभी जरूरत ही महसूस हुई) और इन पर किसी ने उंगली तक नहीं उठाई, जबकि हाशिम अंसारी अपने घर में हमेशा अकेले ही रहते हैं? अयोध्या ने नब्बे के दशक में सबसे बुरा दंगा देखा है, लेकिन हाशिम अंसारी को किसी ने नहीं छुआ। वैसे भारत के हर शहर-गांव में हामिद अंसारी और महंतजी हैं। मगर हर जगह उनके नाम, रूप और काम अलग हैं। फिर क्यों हम बहकावे में आ जाते हैं? क्या दोष सिर्फ बहकानेवालों का ही है? क्या हम बातों में आ जाने वाले भी उतने ही जिम्मेदार नहीं हैं? अगर वे सांप हैं और जहर उगल रहे हैं तो हम भी तो चंदन हैं... हम कैसे सुगंध से नाता तोड़ सकते हैं? बहकाने वाले आते हैं और बहका कर चले जाते हैं... मगर हम... हम क्या ऐसा नहीं कर सकते कि बहकाने वालों का ही दिमाग बदल दें? हम भेड़ों की तरह सिर हिलाते हुए सुनते क्यों रहते हैं? अपनी समझ का उपयोग आखिर हम कब करेंगे? हामिद अंसारी और महंतजी की दोस्ती क्या सिर्फ अयोध्या में ही संभव है? क्या ऐसे रिश्ते हमारे आसपास हम नहीं देखते हैं? जुम्मन शेख और अलगू चौधरी की दोस्ती में गलतफहमी भले ही हो जाए... वह टूटती नहीं है, बल्कि दरार पटने पर और गाढ़ी हो जाती है। यह भारत का ही मिजाज है कि जुम्मन शेख का कोई काम अलगू चौधरी के बगैर पूरा नहीं होता है। संत खड़ाऊ पहनते हैं तो मुसलमान कारीगर ही उसे अपने खून-पसीने से आकार देते हैं। यहां तक कि अयोध्या के रामजी का ‘वेष’ भी मुसलमान दर्जी ही तैयार करता है। ...तो फिर हम क्यों डरे हुए हैं- एक रुके हुए फैसले के आ जाने से? हमारी जिंदगी के मानी तो नहीं बदल जाएंगे एक फैसले से? रिश्तों की गरमाहट इस फैसले से बरफ की तरह जमने वाली तो नहीं है। जब हमारे अपने ही आसपास हैं तो हम डर आखिर किससे रहे हैं? ठीक है कि हर जगह सारे देवदूत नहीं हो सकते, लेकिन यह भी तो सच है कि दानवों का संहार करने के लिए देवता ऊपर से तो नहीं आते हैं। पैगंबर बन कर ही वे दानव-वध करते हैं। तो क्या हम अपने आसपास के ऐसे दानवों को खुली छूट दे देंगे... कि वो हवन-सामग्री नष्ट कर दें और पवित्र आग में पानी डाल दें? हर धर्म में दानवों के साथ एक जैसा ही बर्ताव होता है। जब सारे धर्म के दानव एक जैसे ही होते हैं तो सारे धर्म के मानव एक जैसे क्यों नहीं हो जाते? हम डर रहे हैं तो अपने ही डर से। इस डर को निकाल बाहर करने का यही मौका है!(कल भी...)