अयोध्या का फैसला मंदिर के पक्ष में हो या मस्जिद के... कांग्रेस को कुछ ज्यादा फर्क नहीं पडऩे वाला है। उसके तो दोनों ही हाथों में लड्डू हैं... क्योंकि कांग्रेस का मध्यमार्ग ही उसकी संजीवनी बूटी है। भाजपा जब हिंदुओं के पक्ष में खड़ी होती है तो वह मुसलमानों के खिलाफ हो जाती है। गोधरा-कांड के बाद गुजरात की हत्याएं उसी का सबूत हैं, जबकि कांग्रेस, वोट की खातिर ही सही, मुसलमानों के साथ खड़ी नजर आती है तो वह हिंदुओं के खिलाफ खड़ी नहीं हो जाती है। इसीलिए उसे इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि फैसले का ऊंट किस करवट बैठता है। कांग्रेस ने कभी नहीं कहा कि वहां मस्जिद बनाएंगे या मंदिर तो वहीं होकर रहेगा। भाजपा भले ही कहे कि ‘कसम राम की खाते हैं... मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा उसने नहीं दिया था, मगर सुर में सुर तो भाजपा ने भी मिलाया ही है।
कांग्रेस ने शासन करने का यह फार्मूला इजाद कर लिया कि खुलकर किसी जाति, मजहब, वर्ग, वर्ण का साथ मत दो और ना ही विरोध करो। भारत के लोकतंत्र की यही खूबी है कि आप तमाम खल्वारों को खुश करके सारे मूंछ वालों की नाराजी इसलिए नहीं ले सकते कि उसके वोट का भी उतना ही वजन है। वैसे, देखा जाए तो गणित के हिसाब से भाजपा का हिसाब ठीक था कि सौ फीसदी आबादी में से यदि चौथाई को नाराज भी कर दिया तो बाकी वोट तो अपने पक्के। यह शेखचिल्ली का सपना तो हो सकता है, मगर लोकतंत्र के बीज-गणित से इसका कोई रिश्ता नहीं है। अभी बिहार में चुनाव होने हैं। वहां बीस फीसदी मुसलमान वोटर हैं, मगर फिर भी सारे दल क्यों हर एक की दाढ़ी सहला रहे हैं... इसीलिए ना कि ये दस, बीस या पच्चीस फीसदी वोट जीत भले ही ना तय कर सकें... हार तो लिख ही सकते है
आज़ादी के ठीक बाद कांग्रेस ने यह बीज-गणित समझ लिया था और भाजपा को यह तब समझ में आ रहा है, जबकि प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने को मुंह धोकर बैठे लौह-पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को मुंह की खाना पड़ी। तभी तो आज आडवाणी ही कह रहे हैं कि अभी सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खुले हैं। 24 सितंबर को होने वाला फैसला अंतिम नहीं है।
भाजपा को भी न मंदिर कल बनाना था, न आज बनाना है और ना कल बनाने वाली है... उसे तो सरकार बनाने की चिंता थी और इसी मकसद से उसने विध्वंस में हाथ लगाया था। जबकि भाजपा के लंडुरे-दल तो इसी काम के लिए पैदा हुए थे और उनकी सांसें तो इसी ऑक्सीजन सिलेंडर से तय हो रही थीं। आज भाजपा उतनी मुखर नहीं है और साथी दलों की भौंहें तन रही हैं, दांत पिस रहे हैं तो वजह यही है कि यही उनकी प्राण-वायु है। बताइये, राम मंदिर का मसला अगर मिल-बैठकर हल हो जाए तो बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद् (यहां राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ को नहीं लपेटा जा सकता, क्योंकि उनके पास इसके अलावा भी कई अभियान हैं।) जैसे संगठनों के पास करने के लिए क्या रह जाएगा? अशोक सिंघल, प्रवीण तोगडिय़ा और विनय कटियार आखिर किस मुद्दे पर मुंह खोल पाएंगे। भाजपा के लिए मंदिर अगर गले की हड्डी है, तो इन दलों के लिए अमृतधारा से कम नहीं है।
कांग्रेस के साथ इस तरह के वजन नत्थी नहीं हैं कि उसे शर्माशर्मी ही सही, इस या उस पक्ष के लिए काम करना पड़े। यहां नीचे से ऊपर तक कांग्रेस है! जबकि भाजपा अगर आज थोड़ा भी खुल कर आ जाए तो उसकी दो-चार राज्य सरकार उलट जाएं। बिहार में चुनाव सिर पर हैं और वहां तो नरेंद्र मोदी की सशरीर हाजरी को लेकर ही कुछ तय नहीं हो पा रहा है। मोदी अगर जाते हैं तो नीतीश कुमार छिटक कर दूर हो जाएंगे। भाजपा का गुजारा बगैर नीतीश कुमार के नहीं होने वाला। पेट भी अपना है और पीठ भी अपनी। साथी दलों को उकसाने और हौसला-अफजाई करने में भाजपा ने कोताही नहीं बरती। इसलिए अब वह गुमसुम रहने का ढोंग भी नहीं कर सकेगी, लेकिन उसे खुद की सीमा तय करना होगी, जिसकी शुरुआत आडवाणी के बयान से हो गई है ।
जब दोनों ही दल अयोध्या मामले में ‘हम नहीं... हम नहीं’ का वाचन कर रहे हैं तो फिर पूरा देश 24 सितंबर के नाम से धूज क्यों रहा है? कौन हैं, जिनका हमें डर है? या ये सिर्फ हमारा कोरा डर ही है, जो पुराने हादसों की कोख से जन्मा है? अगर दिमागी तौर पर पूरा देश ‘डर’ के लिए मन बना चुका है तो क्या यह उम्मीद करवट लेती नजर नहीं आती है कि उस दिन कुछ नहीं होगा? 24 सितंबर भी इस माह बाकी तारीखों की तरह ही आम होगा? हम नहीं चाहेंगे तो इस दिन को अलग से याद करने की कोई वजह नहीं होगी। याद रखें, करने वाले कुछ हैं और रोकने वाले अनगिनत...! हमें तय करना है कि हम किधर हैं।(कल भी)
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